नई लिपि

कितनी बातें करने को होती हैं, पर बोलने का मन नहीं! मौन मनुष्य की भाषा भी तो नहीं, कि बिन कहे सब समझा जा सके, ऐसी अपेक्षा रखना फिर सही कैसे हो सकती है? हमारी उम्मीदें, ज़िन्दगी से ज़्यादा होती हैं शायद, या शायद हम- ज़िन्दगी की रखी हमसे उम्मीदों को झटक देते हैं। कहीं ना कहीं हम दोनों ही जगह असफल महसूस करते हैं एक दिन। एक दिन जब हम ज़िन्दगी संवारने निकलते हैं,हम विफल होते जाते हैं- छोटी छोटी खुशियों के रेस में, या उस रेस में बने रहने की खातिर हम हार जाते हैं किसी बड़ी मुकाम को। हाँ हो सकता है, मेरे ये विचार आपके विचारों से सामंजस्य ना रखते हों, और फिर दूसरे जीवन में मेरे विचार, खुद इन विचारों के वैमनस्यता में दिखते। एक बीज ज़मीन की मिट्टी में विशाल वृक्ष बन सकता है, गमला जड़ों को एक सीमित संसर्ग ही दे सकता है। तरासिए अपने हिस्से का ज़मीन-आसमान, जड़ें जितना धरातल तरासेंगी, आसमां उतना करीब नज़र आएगा। फिर शायद मौन भी एक लिपि बनकर उभर आए उन्हीं डालों पर।-@diary._.snaps

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