संवाद

वाणी: (चहकते हुए प्रसन्नता से) कहानी की अन्तिम रूपरेखा बाकी है अब केवल। तुमने ईश्वर, और प्रेम से लबरेज़ किरदार गुंथा।
(थोड़ा ठहरकर, चिन्तित स्वर में) एक नास्तिक, प्रेम में हारे किसी व्यक्ति का ऐसा दोहरा लेखन?

नीरव: कहानियाँ किसी की बीती ज़िन्दगी होती हैं
या उनके ज़िन्दगी बसर करने की रोज़मर्रा वाली आपाधापी में, उनके कमरे के किसी कोने में औंधे पड़े अरमान।
कहानियाँ पूर्णतः झूठ नहीं होती कभी।
हारा हुआ व्यक्ति नकारता है विश्वास, पर उसके कानों और देह में कौंधता है, उम्मीद का स्वर और बढ़े हाथों का स्पर्श जो उसकी बीती स्मृतियों से नकारात्मकता धुंधला कर दे।

-@diary._.snaps

नई लिपि

कितनी बातें करने को होती हैं, पर बोलने का मन नहीं! मौन मनुष्य की भाषा भी तो नहीं, कि बिन कहे सब समझा जा सके, ऐसी अपेक्षा रखना फिर सही कैसे हो सकती है? हमारी उम्मीदें, ज़िन्दगी से ज़्यादा होती हैं शायद, या शायद हम- ज़िन्दगी की रखी हमसे उम्मीदों को झटक देते हैं। कहीं ना कहीं हम दोनों ही जगह असफल महसूस करते हैं एक दिन। एक दिन जब हम ज़िन्दगी संवारने निकलते हैं,हम विफल होते जाते हैं- छोटी छोटी खुशियों के रेस में, या उस रेस में बने रहने की खातिर हम हार जाते हैं किसी बड़ी मुकाम को। हाँ हो सकता है, मेरे ये विचार आपके विचारों से सामंजस्य ना रखते हों, और फिर दूसरे जीवन में मेरे विचार, खुद इन विचारों के वैमनस्यता में दिखते। एक बीज ज़मीन की मिट्टी में विशाल वृक्ष बन सकता है, गमला जड़ों को एक सीमित संसर्ग ही दे सकता है। तरासिए अपने हिस्से का ज़मीन-आसमान, जड़ें जितना धरातल तरासेंगी, आसमां उतना करीब नज़र आएगा। फिर शायद मौन भी एक लिपि बनकर उभर आए उन्हीं डालों पर।-@diary._.snaps

लेख

किसी के साथ प्रेम में कब तक रहा जा सकता है? या अन्य शब्दों में कहूँ तो बिना प्रेम के प्रतिफल की अपेक्षा किए कब तक किसी से प्रेम कर सकता है एक व्यक्ति।
जब यह सवाल मुझसे हो तो स्मृतिपटल में नब्बे के दशक के कुछ अवशेष ऐसे ही खिल उठते हैं जैसे दस बजते ही खिल जाते हैं बिछुडी के फूल।
नब्बे का दशक, मोबाइल फोन का नहीं था, मैसेज, कॉल, विडियो कॉल का नहीं था, वो दौर बस ख़तों का दौर था, इंतज़ार का दौर।
माँ को चिट्ठियों के जवाब नहीं मिले उनके, पर फ़िक्रमन्द वो तब भी रहीं पूरे सात साल तक। दो एक बन्धन में जुड़ी ज़िन्दगियाँ स्वतन्त्र जीवन जी रहीं थी, किसी तीसरे के भविष्य के लिए। इतना त्याग, समर्पण, प्रेम, माँ-पिताजी के अलावा किसमें होता है भला। माँ नाम के साथ-साथ कर्म और धर्म दोनों से भी उर्मिला हैं। प्रेम, त्याग और समर्पण साथ-साथ चलते हैं अक्सर। प्रेम-कथाएं यूँही दो लोगों के एक कमरे में रह बस लेने से नहीं रच जाती। इन्तज़ार, संयम और विश्वास प्रेम के लिए महत्त्वपूर्ण कड़ियाँ हैं, हल्की सी भी धूल जमने पर, हवाएँ मिलने से, कड़ियों में जंग लग सकती है। और जंग कड़ियों के साथ रिश्तों को खा जाएगा। तीस साल बहुत लम्बा वक़्त  था, शायद मुश्किल भी रहा हो, पर दोनों का आजतक खुशी-खुशी साथ रहना प्रमाण है कि प्रेम दूब नहीं जो कहीं भी, तुरन्त उग आए, बल्कि यह Bonsai पेड़ की तरह है जिसे ज़्यादा से ज़्यादा नज़ाकत, प्रेम, और संयम से परोसा जाए तो सालों साल तक जीवंत रहे।-@diary._.snaps

लघुकथा

चाय पीते हुए बड़ी तल्लीनता से उसके चेहरे को निहारते हुए, मैंने पूछा था उसे, “कितनी रातों से सोए नहीं हो?”
हँसमुख सा चेहरा, झूठ ना बोल पाने वाली आँखें, चाय के कुल्हड़ में नज़रें धँसाए, काम का बहाना कर चुप हो गईं।
मुझे याद है, मैंने हाथ नहीं थामा था उसका, कुछ अपनी ज़िम्मेदारियों, और फर्ज़ के तले, एक दायरे में मैंने सीमित कर दिया था वो  रिश्ता।
वो रिश्ता जो गर आगे बढ़ता तो उसका सिर, मेरे कांधे पर टिक कर, उसके आँखों के नीचे की काई धुल लेता ।-@diary._.snaps

गुल्लक: खुशियों की

गुल्लक में खुशियाँ जमा करनी चाहिए थीं हमें। खामखाँ हमें पैसे जमा करने की ज़िद्द सी रहती थी।
जमा करने चाहिए थे हमें, हँसी ठिठोलियों के एक-एक क्षण, हिसाब से। ताकि दुःख के दिनों में, हिसाब से निकाल पाते एक-एक खुशी वाले किस्सों को। और आसान हो जाती उन दुःखों के साथ वाली, थोड़ी सी ज़िन्दगी। या जब कभी, दु:ख ख़त्म नहीं होते काफ़ी दिनों तक, तो हम वो खुशियों की पूंजियों वाला गुल्लक, खन्न से तोड़ देते। और जब बिखर जाते वो सारे खुशियों वाले पल, उस कमरे में, बस इधर-उधर, तो सारे खिड़की दरवाज़े बन्द कर, हम महसूस कर पाते वो सारी खुशियों को, तबियत से , खुश होने तक।-@diary._.snaps

शून्य की उत्पत्ति

तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम,
शून्य की उत्पत्ति के पर्याय था।

शून्य के बढ़ने से जैसे बढ़ते गए संख्याओं के औदे
प्रेम के गुणन से वैसे भावनाएं असीमित बढ़ते चले गए… -@diary._.snaps

माँ

माँ को अमर होना चाहिए
उनके स्पर्श
के जादू का
कोई दूसरा पर्याय नहीं है।

उनकी नसीहतों
की सार्थकता
वक़्त बीतने पर पता चलती हैं

और उनके स्नेह
का विकल्प
कभी मुमकिन ही नहीं

इसलिए उस स्नेह
नसीहत
और स्पर्श को
किसी पोटली में गांठकर
रखूँगी सबसे ऊपरी सेल्फ में
बड़ी भारी किताबों के पीछे छिपाकर
उन्हें अमर करने के लिए।-@diary._.snaps

बारिश!

बारिश!
मौसम की पहली बारिश!
कहते हैं सबका नज़रिया अलग होता है। “Beauty lies in the eyes of beholder”
नज़रिये तय करते हैं दृश्य की सुंदरता या कुरूपता। आखिर हैं तो सब कुदरत के ही करिश्मे। करिश्मा! नज़रों का? शायद नज़रिये का !
जो बूदें बादलों से उपज कर किसी की फसलें उपजाती हैं। वही शायद बालकनी में किसी को सुकूं परोस जाती हैं। कभी कोई यादें, कई वादें यूँ ही। खैर, कि हमें बारिश से मोहब्बत तो नही। पर हाँ, बूँदें जब ठहर जाती हैं पंखुड़ियों पर, पत्तों पर, या बालकनी की रेलिंग पर, तो वो खूबसूरत होती हैं। क्यूंकि ठहर जाना  मेरे नज़रिये से खुबसूरत है। और नज़रिये अपने होते हैं। अलग हो सकते हैं।

बारिश!

बारिश!
मौसम की पहली बारिश!
कहते हैं सबका नज़रिया अलग होता है। “Beauty lies in the eyes of beholder”
नज़रिये तय करते हैं दृश्य की सुंदरता या कुरूपता। आखिर हैं तो सब कुदरत के ही करिश्मे। करिश्मा! नज़रों का? शायद नज़रिये का !
जो बूदें बादलों से उपज कर किसी की फसलें उपजाती हैं। वही शायद बालकनी में किसी को सुकूं परोस जाती हैं। कभी कोई यादें, कई वादें यूँ ही। खैर, कि हमें बारिश से मोहब्बत तो नही। पर हाँ, बूँदें जब ठहर जाती हैं पंखुड़ियों पर, पत्तों पर, या बालकनी की रेलिंग पर, तो वो खूबसूरत होती हैं। क्यूंकि ठहर जाना  मेरे नज़रिये से खुबसूरत है। और नज़रिये अपने होते हैं। अलग हो सकते हैं।

क्रम

इश्क़,किताबें,फिर किताबों से इश्क़।


अनुराग,
वैराग,
फिर वैराग से अनुराग।

मान्यत: यह बस एक क्रम है जो निरंतर चलता जाता है। और इस निरन्तरता के अधीन स्थायी रहती हैं – पंखुड़ियाँ ।
कभी हाथों में तो कभी किन्हीं सफ़हों के तले ।

नज़्म

लोग लिखते हैं
अमलतास के फूलों पर
तो कभी गुलमोहर के
दरख़्तों पर
इनके लाल-पीले रंग
मोहित कर,
उतर जाते हैं
कविता कहानियों वाले
कैनवस पर
पर
वो मिट्टी इन्हें
खुद में बो कर
उगा कर
खिला कर
झड़ कर
बिखरने पर
समेट लेती है
खुद में…
बिना अपना वजूद जताए।

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