किसी के साथ प्रेम में कब तक रहा जा सकता है? या अन्य शब्दों में कहूँ तो बिना प्रेम के प्रतिफल की अपेक्षा किए कब तक किसी से प्रेम कर सकता है एक व्यक्ति।
जब यह सवाल मुझसे हो तो स्मृतिपटल में नब्बे के दशक के कुछ अवशेष ऐसे ही खिल उठते हैं जैसे दस बजते ही खिल जाते हैं बिछुडी के फूल।
नब्बे का दशक, मोबाइल फोन का नहीं था, मैसेज, कॉल, विडियो कॉल का नहीं था, वो दौर बस ख़तों का दौर था, इंतज़ार का दौर।
माँ को चिट्ठियों के जवाब नहीं मिले उनके, पर फ़िक्रमन्द वो तब भी रहीं पूरे सात साल तक। दो एक बन्धन में जुड़ी ज़िन्दगियाँ स्वतन्त्र जीवन जी रहीं थी, किसी तीसरे के भविष्य के लिए। इतना त्याग, समर्पण, प्रेम, माँ-पिताजी के अलावा किसमें होता है भला। माँ नाम के साथ-साथ कर्म और धर्म दोनों से भी उर्मिला हैं। प्रेम, त्याग और समर्पण साथ-साथ चलते हैं अक्सर। प्रेम-कथाएं यूँही दो लोगों के एक कमरे में रह बस लेने से नहीं रच जाती। इन्तज़ार, संयम और विश्वास प्रेम के लिए महत्त्वपूर्ण कड़ियाँ हैं, हल्की सी भी धूल जमने पर, हवाएँ मिलने से, कड़ियों में जंग लग सकती है। और जंग कड़ियों के साथ रिश्तों को खा जाएगा। तीस साल बहुत लम्बा वक़्त था, शायद मुश्किल भी रहा हो, पर दोनों का आजतक खुशी-खुशी साथ रहना प्रमाण है कि प्रेम दूब नहीं जो कहीं भी, तुरन्त उग आए, बल्कि यह Bonsai पेड़ की तरह है जिसे ज़्यादा से ज़्यादा नज़ाकत, प्रेम, और संयम से परोसा जाए तो सालों साल तक जीवंत रहे।-@diary._.snaps